प्रेगनेंसी के 9वें महीने में नॉर्मल डिलीवरी के लिए ज़रूरी टिप्स

Dr. Prachi Benara
Dr. Prachi Benara

MBBS (Gold Medalist), MS (OBG), DNB (OBG), PG Diploma in Reproductive and Sexual health

16+ Years of experience
प्रेगनेंसी के 9वें महीने में नॉर्मल डिलीवरी के लिए ज़रूरी टिप्स

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प्रेगनेंसी एक बदलाव भरी रोमांचक यात्रा है, जो डिलीवरी के बाद अपने अंज़ाम तक पहुंचती है। जैसे-जैसे डिलीवरी की तारीख़ नज़दीक आती है, प्रगेनेंट महिलाओं के मन में यह ख़याल आने शुरू हो जाते हैं कि उनकी डिलीवरी किस तरह होगी। क्या उनकी नॉर्मल डिलीवरी हो पाएगी या फिर उन्हें सर्जरी से गुज़रना होगा? 

आमतौर पर महिलाओं की प्राथमिकता नॉर्मल डिलीवरी यानी वजाइनल बर्थ की होती है। उनकी इस इच्छा के पीछे कई वजहें हैं। नॉर्मल डिलीवरी के बाद महिलाएं जल्दी रिकवर हो पाती हैं और यह जच्चा-बच्चा दोनों के लिए ही फ़ायदेमंद होती है। 

इस लेख में प्रेगनेंसी के 9वें महीने में नॉर्मल डिलीवरी को क़ामयाब बनाने के लिए ज़रूरी टिप्स देने के साथ-साथ बात करेंगे कि इस पर विज्ञान क्या कहता है। साथ ही, इससे जुड़े मिथ्स और फ़ैक्ट्स के अलावा अक्सर पूछे जाने वाले सवालों के जवाब देने की भी कोशिश की जाएगी।

नॉर्मल डिलीवरी क्या है?

नॉर्मल डिलीवरी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसमें सर्जरी की ज़रूरत के बग़ैर, योनि के रास्ते प्रसव होता है। इसके तीन प्रमुख चरण होते हैं:

  1. पहला चरण (लैंटेट और ऐक्टिव लेबर): जब ऐंठन लगातार होने लगती है, तब इस चरण की शुरुआत होती है। इसमें सर्विक्स का आकार 10 सेंटीमीटर तक फैल जाता है।
  2. दूसरा चरण (बच्चे की डिलीवरी): इसमें गर्भ से बच्चा बर्थ कैनाल के ज़रिए गुज़रता हुआ योनि के रास्ते बाहर निकलता है। बच्चे के जन्म के साथ ही यह चरण ख़त्म हो जाता है।
  3. तीसरा चरण (प्लैसेंटा की डिलीवरी): बच्चे के जन्म के बाद, प्लैसेंटा बाहर निकलता है। इसके साथ ही नॉर्मल डिलीवरी की पूरी प्रक्रिया ख़त्म हो जाती है। 

नॉर्मल डिलीवरी क्यों जरूरी है?

नॉर्मल डिलीवरी के कई फ़ायदे हैं और इन्हीं फ़ायदों की वजह से महिलाएं चाहती हैं कि वे नॉर्मल डिलीवरी करें। जैसे:

  • तेज़ रिकवरी: सिजेरियन डिलीवरी के मुक़ाबले इसमें आम तौर पर महिलाओं को अस्पताल में कम समय रहना पड़ता है।
  • सर्जरी का जोखिम नहीं: सर्जरी से जुड़ी जोखिम का ख़तरा नहीं होता। सर्जरी के बाद इनफ़ेक्शन या फिर एनेस्थीसिया से जुड़ी समस्याएं पैदा हो सकती हैं, लेकिन नॉर्मल डिलीवरी में इनसे राहत मिल जाती है।
  • शिशु का बेहतर स्वास्थ्य: नॉर्मल डिलीवरी यानी योनि के रास्ते जन्म लेने वाले बच्चों में सांस संबंधी समस्याओं का जोखिम कम होता है, क्योंकि इस प्रक्रिया से उनके फेफड़ों से तरल पदार्थ यानी फ़्लूइड निकलने में मदद मिलती है।
  • मां और बच्चे का तुरंत जुड़ाव: नॉर्मल डिलीवरी के बाद मां और बच्चे का जुड़ाव तुरंत होने लगता है। स्किन-टू-स्किन कॉन्टैक्ट और स्तनपान की प्रक्रिया सिजेरियन के मुक़ाबले इसमें जल्दी शुरू हो जाती है और इससे मां-बच्चे के बीच का संबंध मज़बूत होता है।

कैसे पता चलेगा डिलीवरी नार्मल होगी या सिजेरियन?

यह प्रेगनेंसी के आख़िरी फ़ेज़ में महिलाओं के ज़ेहन में उठने वाले सबसे ज़रूरी सवालों में एक है। जानकारी के अभाव में महिलाओं के मन में इस बात को लेकर चिंता लगातार बड़ी होती जाती है कि उनकी डिलीवरी कैसे होगी? कई महिलाओं को अस्पताल में भर्ती होने तक इसका अंदाज़ा नहीं होता। तो आइए जानते हैं कि वे कौन-सी वजहे हैं जिनसे नॉर्मल और सिजेरियन डिलीवरी निर्धारित होती हैं:

  • बच्चे की पोज़िशन: नॉर्मल डिलीवरी के लिए आदर्श स्थिति यह है कि बच्चे का सिर नीचे की ओर हो। इसे सिफ़ैलिक पोज़िशन भी कहते हैं। अगर बच्चे के पैर नीचे की ओर हैं, यानी वह ब्रीच पोज़िशन में है या फिर वह पेट में आड़ा-तिरछा (साइडवेज़) घूम गया है, तो नॉर्मल डिलीवरी मुश्किल हो जाती है। ऐसे में सिजेरियन की ज़रूरत पड़ सकती है।
  • महिला का स्वास्थ्य: हाइपरटेंशन, डाइबिटीज़ या दूसरी तरह की शारीरिक समस्याओं का असर डिलीवरी के तरीक़ों पर पड़ सकता है।
  • बच्चे का स्वास्थ्य: अगर बच्चा तनाव में है या फिर उसके दिल की धड़कन असामान्य है, तो नॉर्मल डिलीवरी के बजाय सिजेरियन को ज़्यादा उपयुक्त माना जाता है।
  • लेबर की स्थिति: अगर लेबर की प्रक्रिया शुरू होने के बाद सर्विक्स का फैलाव पर्याप्त नहीं हुआ है या फिर लेबर की प्रक्रिया बीच में ही रुक गई है, तो नॉर्मल डिलीवरी मुश्किल हो सकती है। ऐसे में सर्जरी का रास्ता चुनना पड़ सकता है।

इसलिए, डिलीवरी के समय के हालात को समझने के लिए पहले से ही नियमित चेकअप कराना ज़रूरी है। इससे सुरक्षित डिलीवरी के विकल्प का अंदाज़ा पहले ही हो जाता है और इस तरह महिला और उनके परिजनों को ज़रूरी तैयारी करने में आसानी होती है।

9 महीने में डिलीवरी कब हो सकती है?

प्रेगनेंसी का नौंवा महीना 37वें से लेकर 42वें हफ़्ते के बीच का समय होता है। इस दौरान डिलीवरी से जुड़ी ज़रूरी जानकारी आपके पास होनी चाहिए:

  • फ़ुल-टर्म प्रेगनेंसी: 37 से 42 हफ़्ते के बीच हुए जन्म को फ़ुल-टर्म यानी पूर्णकालिक माना जाता है। इसका मतलब है कि शिशु का अधिकतम विकास हो चुका है।
  • लेबर की तैयारी: इस दौरान किसी भी समय लेबर शुरू हो सकता है। यह मां के स्वास्थ्य, शिशु के विकास और कई बार शारीरिक भिन्नताओं पर भी निर्भर करता है।
  • लेबर के संकेत: लेबर के संकेतों में अमूमन नियमित खिंचाव, वॉटर ब्रेकिंग यानी मेंब्रेन में रैप्चर और म्यूकस प्लग का बाहर आना शामिल हैं।

नोट: हर महिला की प्रेगनेंसी अपने-आप में यूनीक होती है, इसलिए ज़रूरी नहीं है कि एक महिला का लेबर जब शुरू हुआ, उसी समय दूसरी का भी शुरू हो। यह भी ज़रूरी नहीं है कि एक में जो लक्षण दिख रहे हैं, ठीक वही लक्षण दूसरी महिला में भी दिखे। हालांकि, बायोलॉजिकल प्रक्रियाएं एक जैसी होती हैं और नौवें महीने में ऊपर बताए गए लक्षण अमूमन हर महिला अनुभव करती हैं, लेकिन इस दौरान ये लक्षण किसी भी समय दिखने शुरू हो सकते हैं।

प्रेगनेंसी के 9 महीने की सावधानियां

सुरक्षित और सहज डिलीवरी के लिए हर महिला को कुछ ख़ास तैयारियां करनी चाहिए। डिलीवरी की प्लानिंग बहुत ज़रूरी है। कई बार महिलाएं पहले से तैयार नहीं होतीं और उन्हें लगता है कि डिलीवरी में अभी समय है, लेकिन अचानक लेबर शुरू होने के बाद हड़बड़ी में उन्हें अस्पताल भागना पड़ता है। हमेशा इस बात को याद रखें कि नौवें महीने में किसी भी समय डिलीवरी हो सकती है, इसलिए पहले से ज़रूरी तैयारी करके रखें।

प्रेगनेंसी के दौरान नियमित मेडिकल सलाह:

  • शिशु के विकास, उसकी पोज़िशन और समग्र स्वास्थ्य को मॉनिटर करते रहें।
  • अपने स्वास्थ्य पर भी हमेशा नज़र रखें और डाइबिटीज़ एवं हाई ब्लड प्रेशर जैसी चीज़ों को नियमित रूप से नापते रहें।

संतुलित पोषण:

  • प्रोटीन, विटामिन और खनिज से भरपूर आहार का सेवन करें, ताकि आपका स्वास्थ्य ठीक रहे और बच्चे के विकास को पर्याप्त सहारा मिल सके।
  • पर्याप्त मात्रा में पानी पिएं, ताकि डिहाइड्रेशन से बचा जा सके। इससे एमनियोटिक फ़्लूइड का लेवल भी बरकरार रखने में मदद मिलती है।

शारीरिक गतिविधि:

  • वॉकिंग या प्रीनेटल योगा जैसी हल्की एक्सरसाइज़ करती रहें। इससे सहनशक्ति बढ़ती है और शरीर लेबर की प्रक्रिया के लिए तैयार होता है।
  • पेल्विक मांसपेशियों को मज़बूत बनाने के लिए पेल्विक फ़्लोर एक्सरसाइज़ करें, इससे डिलीवरी के समय आपको आसानी होगी।

पर्याप्त आराम करें:

  • ऊर्जा का स्तर और अपनी सेहत को तंदुरुस्त बनाए रखने के लिए पर्याप्त नींद बेहद ज़रूरी है। नींद की अवधि से भी ज़्यादा ज़रूरी है अच्छी क्वालिटी की नींद यानी गहरी और बेफ़िक्री भरी नींद। इसलिए, नींद को हमेशा प्राथमिकता दें।
  • अपनी मानसिक सेहत को बेहतर बनाने के लिए सांस से जुड़ी एक्सरसाइज़ करें और जितना हो सके तनाव लेने से बचें।

बच्चे के जन्म से पहले की तैयारियां:

  • अपने डॉक्टर से पूछें कि आपकी डिलीवरी किस तरह होगी। क्या नॉर्मल डिलीवरी मुमकिन है या फिर सिजेरियन कराना होगा? इसके अलावा, आपके ज़ेहन में जितने सवाल आते हैं, वे सब उनसे पूछें, ताकि आपको अपने सवालों के जवाब मिल सकें और आप सुकून महसूस कर सकें। मसलन, दर्द को कैसे मैनेज करना होगा, लेबर के दौरान क्या होता है?
  • हमेशा हर विकल्प के लिए तैयार रहें, क्योंकि हालात अचानक भी बदल सकते हैं। इसलिए, किसी एक विकल्प को लेकर अड़े नहीं। मसलन, अगर बच्चे की पोज़िशन बदल जाती है, तो आपको मानसिक रूप से सिजेरियन के लिए तैयार रहना होगा।

नार्मल डिलीवरी कितनी देर में होती है?

डिलीवरी की अवधि हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग हो सकती है, लेकिन आम तौर पर यह प्रक्रिया इस तरह की होती है:

लेबर का फ़ेज़

  • अर्ली लेबर: यह तक़रीबन 6 से 12 घंटे तक रहता है, जिसमें हल्का खिंचाव होता है और सर्विक्स फैलना शुरू हो जाता है।
  • ऐक्टिव लेबर: आमतौर पर 4 से 8 घंटे तक रहता है, जिसमें काफ़ी तेज़ और लगातार खिंचाव होता है। साथ ही सर्विक्स और ज़्यादा फैल जाता है, तक़रीबन 10 सेंटीमीटर तक।
  • ट्रांज़िशन फ़ेज़: यह लेबर का सबसे दर्दनाक हिस्सा होता है, जो लगभग 30 मिनट से लेकर 2 घंटे तक रहता है। इसमें सर्विक्स अधिकतम आकार तक फैल जाता है।

डिलीवरी का फ़ेज़

  • पुशिंग और डिलीवरी: कुछ मिनटों से लेकर कई घंटे तक चल सकता है, जो बच्चे के जन्म के साथ समाप्त होता है। इस दौरान बच्चा बर्थ कैनाल से योनि के रास्ते बाहर निकलता है। अमूमन सबसे पहले बच्चे का सिर बाहर निकलता है और बाद में बाक़ी शरीर। इस दौरान खिंचाव के साथ ही बाहर को धक्का देना होता है।

प्लेसेंटा की डिलीवरी

  • प्लेसेंटा की डिलीवरी: बच्चे के जन्म के 5 से 30 मिनट के भीतर होता है। इस दौरान हल्का खिंचाव होता है।

इसके बाद शुरू होता है पोस्ट-डिलीवरी फ़ेज़। बच्चे के जन्म के बाद उसकी तत्काल देखभाल और नाल की कटाई और स्किन-टू-स्किन संपर्क बेहद ज़रूरी है।

नार्मल डिलीवरी के लिए क्या खाना चाहिए?

यूं तो समूची प्रेगनेंसी में संतुलित आहार लेना चाहिए, लेकिन 9वें महीने में यह ख़ास तौर पर ज़रूरी है। आइए इस टेबल की मदद से समझते हैं कि पौष्टिक आहार क्यों ज़रूरी है।

क्या खाएं स्रोत क्या है क्यों ज़रूरी है
प्रोटीन लीन मीट, फलियां, डेयरी प्रोडक्ट टिशू रिपेयर होने और मांसपेशियों में ताक़त के लिए
कॉम्प्लैक्स कार्बोहाइड्रेट साबुत अनाज, फल, सब्ज़ियां लेबर के दौरान एनर्जी लेवल बनाए रखने के लिए
आयरन हरी पत्तीदार साग-सब्ज़ियां, बीन, फ़ोर्टिफ़ाइड अनाज एनीमिया से बचने और शिशु तक ऑक्सीजन की आपूर्ति के लिए
ओमेगा-3 फ़ैटी एसिड मछलियां, अखरोट, फ़्लैक्ससीड शिशु के मस्तिष्क के विकास के लिए
कैल्शियम और विटामिन-डी दूध, दही, सूरज की रोशनी शिशु की हड्डियों में मज़बूती के लिए
पर्याप्त पानी साफ़ पानी लेबर के दौरान डिहाइड्रेशन से बचने के लिए

इन चीज़ों के सेवन से बचेंप्रोसेस्ड फ़ूड, बहुत ज़्यादा नमक और चीनी से परहेज करें। कच्चे या अधपके मांस के सेवन से बचें। ज़्यादा मर्करी वाली मछलियों और बिना पॉश्चुराइज़ किए गए डेयरी प्रोडक्ट से दूरी बरतें।

नॉर्मल डिलीवरी को आसान बनाने के लिए लाइफ़स्टाल से जुड़ी टिप्स

खाने-पीने के अलावा आपकी लाइफ़स्टाइल का भी आपके शरीर के ऊपर काफ़ी असर पड़ता है और इससे लेबर की प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है:

  1. ऐक्टिव रहें: रोज़ हल्की-फ़ुल्की शारीरिक गतिविधियां करते रहें, जैसे कि वॉकिगं, हल्की स्ट्रेचिंग। इससे ब्लड सर्कुलेशन बेहतर होगा और शरीर में लचीलापन आएगा।
  2. प्रीनैटल योगा: बटरफ़्लाई स्ट्रेच, कैट-काउ पोज़ और स्क्वाट जैसे आसन करें। इनसे पेल्विक का हिस्सा खुलता है और जन्म देने में मदद पहुंचाने वाली मांसपेशियां मज़बूत होती हैं।
  3. सांस से जुड़ी एक्सरसाइज़: गहरी सांस से जुड़ी एक्सरसाइज़ करें। इससे दर्द को मैनेज करने, चिंता दूर करने और लेबर के दौरान ऑक्सीजन की आपूर्ति बेहतर बनाने में मदद मिलती है।
  4. वज़न क़ाबू में रखें: नॉर्मल डिलीवरी को सुगम बनाने के लिए वज़न को क़ाबू में रखना ज़रूरी है। बहुत कम या फिर बहुत ज़्यादा वज़न संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए सही नहीं होता है।
  5. पेरिनियल मसाज करें: प्रेगनेंसी के 34वें हफ़्ते के आस-पास पेरिनियल मसाज शुरू करें। योनि के निचले हिस्से में हल्का-हल्का मसाज करें। इससे डिलीवरी के दौरान स्किन फटने की आशंका कम होती है।
  6. तनाव से बचें: ध्यान करें। जिन चीज़ों से आपको चिढ़ है या जो चीज़ें आपके तनाव को बढ़ाती हैं, उनसे दूर रहें। ध्यान रहे कि मानसिक तनाव का असर लेबर प्रक्रिया के ऊपर पड़ता है।
  7. पेल्विक टिल्ट एक्सरसाइज़: इससे शिशु को जन्म के लिए सही पोज़िशन में लाने में मदद मिलती है। ऐसा करने से जन्म के समय जटिलताएं कम हो सकती हैं।

नॉर्मल डिलीवरी को लेकर विज्ञान और आधुनिक रिसर्च के कुछ फ़ैक्ट्स:

  • प्रेगनेंसी के दौरान एक्सरसाइज़: अमेरिकन जर्नल ऑफ़ ऑब्स्टेट्रिक्स एंड गायनेकोलॉजी में छपी एक रिसर्च में बताया गया है कि प्रेगनेंसी के दौरान संतुलित तरीक़े से एक्सरसाइज़ करने वाली महिलाओं के लेबर की अवधि कम होती है और उनकी मेडिकल ज़रूरतें भी बाक़ी महिलाओं की तुलना में कम होती हैं।
  • पोषण की भूमिका: ब्रिटिश जर्नल ऑफ़ न्यूट्रीशन में छपी एक रिसर्च में पाया गया है कि प्रेगनेंसी के दौरान ओमेगा-3 फ़ैटी एसिड के पर्याप्त सेवन से प्रीटर्म लेबर के जोखिम को कम किया जा सकता है और शिशु के स्वास्थ्य को भी इससे बेहतर बनाया जा सकता है।
  • तनाव कम करना: साइकोसोमैटिक मेडिसिन में छपे एक रिव्यू में बताया गया है कि ध्यान जैसी तकनीकों के ज़रिए तनाव कम करने का सीधा असर लेबर के ऊपर पड़ता है और लेबर की प्रक्रिया आसान हो जाती है, क्योंकि इससे कोर्टिसोल लेवल कम होता है।
  • प्रीनैटल योगा के लाभ: जर्नल ऑफ़ अल्टरनेटिव एंड कॉम्प्लिमेंटरी मेडिसिन में इस बात के सबूत दिए गए हैं कि प्रीनैटल योगा लेबर पेन को कम करने, लचीलापन बढ़ाने और नॉर्मल डिलीवरी सुनिश्चित करने में काफ़ी मददगार है। 

नॉर्मल डिलीवरी से जुड़े मिथ्स और फ़ैक्ट्स

मिथ्स फ़ैक्ट्स
पहली बार की प्रेगनेंसी में नॉर्मल डिलीवरी नहीं होती नॉर्मल डिलीवरी का इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि किसी महिला की वह कौन-सी प्रेगनेंसी है। सही देखभाल और तैयारी ज़रूरी है।
नॉर्मल डिलीवरी में एपिड्यूरल का इस्तेमाल नहीं होता दर्द कम करने के लिए नॉर्मल डिलीवरी में भी एपिड्यूरल का इस्तेमाल किया जा सकता है।
बड़े आकार के बच्चे के लिए हमेशा सिजेरियन की ही ज़रूरत होती है कई महिलाएं बड़े बच्चों को भी नॉर्मल तरीक़े से डिलीवर करती हैं। यह कोई असामान्य बात नहीं है।
पूरे दिन आराम करने से नॉर्मल डिलीवरी की संभवना ज़्यादा हो जाती है नियमित रूप से ऐक्टिव रहना ज़रूरी है, हल्की एक्सरसाइज़ से लेबर और आसान होती है। हां, इस दौरान बहुत ज़्यादा श्रम से बचना चाहिए।

नॉर्मल डिलीवरी से जुड़े अक्सर पूछे जाने वाले सवाल

सवाल: कैसे पता चलेगा कि मेरा लेबर शुरू हो गया है?

जवाब: लेबर शुरू होने पर आपको नियमित खिंचाव और पीठ दर्द होगा, वॉटर ब्रेक होगा और म्यूकस प्लग डिसचार्ज शुरू हो जाएगा। ऐसे लक्षण दिखते ही तुरंत अस्पताल जाएं।

सवाल: मेरे बच्चे का आकार बड़ा है, क्या मेरी नॉर्मल डिलीवरी हो सकती है?

जवाब: हां, सही मार्गदर्शन और उचित देखभाल से आपकी नॉर्मल डिलीवरी हो सकती है। अगर बाक़ी कोई जटिलता नहीं है, तो बच्चे के आकार से बहुत ज़्यादा रुकावट नहीं आती। पेल्विक एक्सरसाइज़ और डॉक्टर के सुझाव के मुताबिक़ तैयारी करें।

सवाल: क्या नॉर्मल डिलीवरी में सिजेरियन के मुक़ाबले ज़्यादा दर्द होता है?

जवाब: नॉर्मल डिलीवरी में लेबर पेन होता है, लेकिन रिकवरी बहुत तेज़ होती है। सिजेरियन का विकल्प आप लेबर पेन से पहले भी चुन सकती हैं, इसलिए उसमें दर्द से छुटकारा मिल सकता है। हालांकि, सर्जरी के बाद रिकवरी में आपको लंबा समय लग सकता है।

सवाल: कैसे सुनिश्चित करें कि मेरा शिशु नॉर्मल डिलीवरी के लिए सही पोज़िशन में आ जाए?

जवाब: पेल्विक टिल्ट्स एक्सरसाइज़ करें और डॉक्टर के सुझावों का पालन करें।

प्रेगनेंट महिलाओं के लिए 9वें महीने की चेकलिस्ट

  • नियमित रूप से डॉक्टर से मिलें
  • संतुलित आहार लें
  • प्रीनैटल योगा या हल्की एक्सरसाइज़ रोज़ करें
  • बर्थ प्लान पर डॉक्टर से चर्चा करें
  • अस्पताल ले जाने के लिए बैग में ज़रूरी सामान पहले से तैयार कर लें
  • ध्यान और सांस से जुड़ी एक्सरसाइज़ करें
  • लेबर के लक्षणों को अच्छे से समझ लें
  • भारी सामान उठाने से बचें, ज़्यादा मेहनत न करें
  • पर्याप्त नींद लें, पर्याप्त पानी पिएं
  • इमर्जेंसी कॉन्टैक्ट की तैयारी करके रखें

निष्कर्ष

नॉर्मल डिलीवरी बच्चे को जन्म देने की प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसे ज़्यादातर महिलाएं चुनना चाहती हैं। यह बच्चे और मां, दोनों के स्वास्थ्य के लिए सबसे उचित विकल्प है। हालांकि, इसके लिए ज़रूरी तैयारियां करना भी उतना ही आवश्यक है। लेबर के लक्षणों और बच्चे की पोज़िशन समेत कई तरह की जानकारी आपके पास होनी चाहिए। प्रेगनेंसी हर पल एक नया पाठ पढ़ाती है। इसलिए, ख़ुद को अपडेट रखिए और डॉक्टर की सलाह के मुताबिक़ चलिए।

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